Tuesday, November 27, 2012

मैं मारने- मरने आया था

मैं मारने- मरने  आया  था
आ पहुंचा था मंजिल के करीब
कि हुई किस्मत ख़राब
रन बांकुरों के सामने एक न चली
विधाता को था कुछ और ही मंजूर
पकडे गए
पर मृत्युलोक की जन सुनवायी मे तिल - तिला कर मरता था,
कभी डेंगू की अफवाह,
तो कभी कबाब का था शोर !

लेकिन आखिर में मैं अब चला
हरसाओ खुशियाँ मनाओ
 उत्सव खूब मनाओ,
मेरे कब्र पर, खाली मैदान मे करमा खूब कराओ,
लेकिन ये भी तो सियासत का रंग है
क्या तीर चलाया है
एक नहीं दो नहीं कितनों को निशाना बनाया है..
वाह रे ! वाह रे ! कर्णधारों !!
अकेले क्या खूब लडा है,

 आगे की तैयारी मे अब क्या रहा है ?
मै तो आया ही था मारने - मरने ,
तुम तो उनके अपने हो,
फिर क्यो ? मृत्यु लोक के जन सुनवाई  मे तिल तिल कर मरता था !
कभी डेंगू की अफवाह थी , तो कभी कबाब का था जोर !
अब क्या गुरू - अबु को मंथन मे उलझाओंगे,
मथनी कमजोर पडी है,
अब क्या पछताओंगे? 
नही ! अभी बचे  है शेष प्राण खोखली काया मे !
मूर्ख रंगा सियार है माया मे,
भेडो की रखवाली होगी भेड़िया - साया मे ! 
अंत नही मच्छरो का.........
डेंगू पकडेंगा जरूर, सही समय तो आने दे,
मंथन होंगा फिर किसी का, डोमकच खूब मनायेंगे,
मेरे कब्र .......
स्वर्ग की वादिया बची है खूब, 
कोई जप मर्यादा को, सत्ता तो बीन बजाएगी ,
कर गरीबी की जय जयकार अपनी सेज  सजाएगी ,
जनता चिल्लाती रह जायेगी ...

 चिल्लाती  रह जायेगी
अपनी  बेबसी में  !
फिर किसी के कब्र पर, अखरा मे डाल संजायेगे, 


अभी बचे  है शेष प्राण खोखली काया मे !
     
                                                      ---अमित अविनशी