घात लगाए ये हिंसक मस्तिक, सुकून मस्तिक के खोज में,
समय की कमी, देखो कहा लेकर जाएगा।
पुनः लौट आए वह जीवनसार, सारे बैठते एक-दूसरे के द्वार,
जहां कोई समय न पूछता, बस पहर की चर्चा करता।।
चर्चा में ख्याल-खातिर और खेत-खलिहान रहता,
प्रकृति के संग रहता, प्रकृति के संग चलता।।।
"आवश्यकता आविष्कार की जननी है"
समय की गणना और उसका पालन, बस यही अनुशासन हैं..?
विकसित औऱ सभ्य सामाज बनता गया, मनुष्य में संग्रहण व मोह आदि के भूख बढ़ते गये।
जहां भूख नहीं होती वहां भय-मुक्त वातावरण का निर्माण होता है और हिंसा का स्थान नही होता।
"आवश्यकता अविष्कार की जननी है"
परंतु मनुष्य की आवश्यकता संग्रहण ही रह गया, और संग्रहित के प्रति अथाह मोह। लगभग सरी रोगों का कारक। जिसकी दवा मृत्यु तक खाने को मजबूर।।
इसी मोहग्रसता के प्रतिस्पर्धा में समाज दिन दूनी-रात चौगुनी विकसित हो रहा, और उसी अनुपात में प्राकृतिक, कृत्रिम एवं सामाजिक व सरकारी संगठित हिंसा भी बढ़ रहा।
चारों तरफ हिंसक मस्तिक घूम रहे हैं...
पुनः वापसी असंभव है, क्योंकि ये नियम-कानून, स्वेच्छा अनुसार पारिवारिक संस्कार, और आतंकित करने वाली नव-सामंतीवाद व लोकतांत्रिक राजा, उनके स्वार्थी तंत्र-अनुयायी।
पूर्वजों का कुछ मान रखे, जिसे वर्तमान एवं आने वाली पीढ़ी भी समझ सके।
महादेव।।। श्रीहरि।।। हरि ॐ।।। श्रीं।।।