फ़िल्में, कहानियाँ ने समाज को सोचने के तरीक़े को गति प्रदान की है, जिससे अत्यधिक उत्तेजना, हिंसा और घृणा के साथ किसी भी तरह से अमीर होने की कोशिश को बढ़ावा…प्रेम और स्नेह भी, परंतु अंधापन भी ।
मानवता का ड्रामाबाजी के तरीकों और एक तरफा नायकवाद, जो यथार्थ के साथ खिलवाड़ है ।
मनोरंजन के नाम पर सामाजिकता को नष्ट करने का प्रयास हुआ और हो रहा है, उपरोक्त स्थितियों के विपरीत कार्य करने लायक कोई नहीं है…
व्यंग और कविता में सामजिकता के प्रति संवेदना और मानवता से लगाव है, परंतु प्रस्तुतकर्ता बचे हैं…?