पुरुषवादी समाज उनके कामों को काम नहीं मानता, उनके कामों के लिए मेहनताना का भी रिवाज नहीं है. तब पुरुषों को लगता है कि वे महिलाओं का भरण पोषण कर रहे हैं.
किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट देना ही यातना है. सभ्यता के इस दौर में जब सभी अपने स्वार्थों के वशीभूत हैं, अपने लाभ के लिए सामने वाले के हित अनहित का विचार त्याग चुके हैं तो निश्चित ही एक ऐसी संवेदन हीनता जन्म लेगी जिसमें लोग दुसरे को कष्ट पहुंचाने को कुछ बुरा नहीं मानेंगे. समय के इस दौर का मतलाब कदापि नहीं है कि हमारा इतिहास यात्नास्पद व्यवहारों से शुन्य रहा हो.. यातना का एक लम्बा इतिहास रहा है . जो कमजोर रहे हैं वे यातना को सहने के लिए आदि काल से ही अभिशप्त रहे हैं. किन्तु अपने लाभ-लोभ के लिए अपने ही भाई बंधुओं को कष्ट देना मनुष्यता नहीं है. मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे ,- जबकि यातना का इतिहास बतलाता है कि मनुष्य दूसरों के लिए मरेगा क्या अपने के लिए दूसरों को मारने में उद्धत है.
यातना शोषकों का हथियार रहा है . वह इसके द्वारा जहाँ शोषितों को शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर करते हैं वहीँ अपनी आक्रामक सत्ता का नंगा नाच भी दिखाते है . यातना वही सहते हैं जो किसी ना किसी रूप से मजबूर और विवश हैं, उनकी विवशता उन्हें चुप रहने को मजबूर करती है तो उनकी चुप्पी शोषकों के इरादों और हौसलों को मजबूत बनाती है.. किसी भी समाज में यातना का जुल्म महिलाओं और बच्चों पर अधिक चलता है.. महिलायें घरेलू परिवेश में पुरुषों पर निर्भर रहकर उनके जोरो जुल्म को झेलती हैं. यद्यपि वे घर में लगातार कामों में जुटी रहती हैं ,किन्तु पुरुषवादी समाज उनके कामों को काम नहीं मानता, उनके कामों के लिए मेहनताना का भी रिवाज नहीं है. तब पुरुषों को लगता है कि वे महिलाओं का भरण पोषण कार रहे हैं. यह पुरुषवादी अहं नारियों को निचा समझता है और उन्हें यातना का भागी बनाने में नहीं झिझकता, इसके अलावा कई ऐसे रीति-रिवाज औए व्यवस्था के घिनौने रूप हैं जिसके कारण महिलायें यातना का शिकार बनती है. इसी तरह बच्चे भी यातना का शिकार बनते हैं. बाल- मजदूरी के अभिशप्त बच्चे तो इसमें शामिल हैं ही , अच्छे भले घर के बच्चे भी किसी न किसी रूप में शारीरिक अथवा मानसिक यातना को झेलते हैं. जिन घरों में पति पत्नी के बीच तनाव रहता है उस घर के छोटे बच्चे भी उस तनाव को महसूस करते हैं, यह तनाव उनके विकास शील व्यक्तित्व को तोड़ने का काम करता है.
यह जरुरी है कि यातना का विरोध किया जाए. यह भी निश्चित है कि यातना कोई सहता नहीं उसकी मजबूरी उसे सहमे को विवश करती है. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है . समाज का काम सुरक्षा देना ही है.. हम सामाजिक तभी कहला सकते हैं जब सभी की सुरक्षा को महत्त्व दें..इस लिहाज से सभी का यह कर्तव्य है कि यातना और शोषण मुक्त समाज के निर्माण में अपना सहयोग दें..
किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट देना ही यातना है. सभ्यता के इस दौर में जब सभी अपने स्वार्थों के वशीभूत हैं, अपने लाभ के लिए सामने वाले के हित अनहित का विचार त्याग चुके हैं तो निश्चित ही एक ऐसी संवेदन हीनता जन्म लेगी जिसमें लोग दुसरे को कष्ट पहुंचाने को कुछ बुरा नहीं मानेंगे. समय के इस दौर का मतलाब कदापि नहीं है कि हमारा इतिहास यात्नास्पद व्यवहारों से शुन्य रहा हो.. यातना का एक लम्बा इतिहास रहा है . जो कमजोर रहे हैं वे यातना को सहने के लिए आदि काल से ही अभिशप्त रहे हैं. किन्तु अपने लाभ-लोभ के लिए अपने ही भाई बंधुओं को कष्ट देना मनुष्यता नहीं है. मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे ,- जबकि यातना का इतिहास बतलाता है कि मनुष्य दूसरों के लिए मरेगा क्या अपने के लिए दूसरों को मारने में उद्धत है.
यातना शोषकों का हथियार रहा है . वह इसके द्वारा जहाँ शोषितों को शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर करते हैं वहीँ अपनी आक्रामक सत्ता का नंगा नाच भी दिखाते है . यातना वही सहते हैं जो किसी ना किसी रूप से मजबूर और विवश हैं, उनकी विवशता उन्हें चुप रहने को मजबूर करती है तो उनकी चुप्पी शोषकों के इरादों और हौसलों को मजबूत बनाती है.. किसी भी समाज में यातना का जुल्म महिलाओं और बच्चों पर अधिक चलता है.. महिलायें घरेलू परिवेश में पुरुषों पर निर्भर रहकर उनके जोरो जुल्म को झेलती हैं. यद्यपि वे घर में लगातार कामों में जुटी रहती हैं ,किन्तु पुरुषवादी समाज उनके कामों को काम नहीं मानता, उनके कामों के लिए मेहनताना का भी रिवाज नहीं है. तब पुरुषों को लगता है कि वे महिलाओं का भरण पोषण कार रहे हैं. यह पुरुषवादी अहं नारियों को निचा समझता है और उन्हें यातना का भागी बनाने में नहीं झिझकता, इसके अलावा कई ऐसे रीति-रिवाज औए व्यवस्था के घिनौने रूप हैं जिसके कारण महिलायें यातना का शिकार बनती है. इसी तरह बच्चे भी यातना का शिकार बनते हैं. बाल- मजदूरी के अभिशप्त बच्चे तो इसमें शामिल हैं ही , अच्छे भले घर के बच्चे भी किसी न किसी रूप में शारीरिक अथवा मानसिक यातना को झेलते हैं. जिन घरों में पति पत्नी के बीच तनाव रहता है उस घर के छोटे बच्चे भी उस तनाव को महसूस करते हैं, यह तनाव उनके विकास शील व्यक्तित्व को तोड़ने का काम करता है.
यह जरुरी है कि यातना का विरोध किया जाए. यह भी निश्चित है कि यातना कोई सहता नहीं उसकी मजबूरी उसे सहमे को विवश करती है. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है . समाज का काम सुरक्षा देना ही है.. हम सामाजिक तभी कहला सकते हैं जब सभी की सुरक्षा को महत्त्व दें..इस लिहाज से सभी का यह कर्तव्य है कि यातना और शोषण मुक्त समाज के निर्माण में अपना सहयोग दें..
लेख - अस्मुरारी नन्दन मिश्रा
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