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उन्हें आलीशान बंगले क्यों चाहिए
जब भी मुश्किलों का मौसम आता है देश में, हमारे राजनेताओं
की एक ही प्रतिक्रिया होती है। घड़ियाली आंसू बहाना। एक जमाना था, जब भारत की जनता
जाहिल, नादान और नासमझ थी, तो बहल जाती थी आसानी से नेताजी के घड़ियाली आंसुओं को
देखकर। अब वह जमाना नहीं रहा। जनता न जाहिल है, न इतनी नादान, सो अच्छी तरह समझती
है कि तेल की बढ़ती कीमतों को लेकर भारत बंद बुलाने से उनका कोई फायदा नहीं होता
है। न महंगाई कम होती है और न ही किसी और तरह का लाभ मिलता है उनको। दिहाड़ी पर जो
मजदूर काम करते हैं हमारे महानगरों में, उनके लिए तो बंद का सीधा असर पड़ता है पेट
पर, लेकिन नुकसान सबका होता है और कीमत अदा करनी पड़ती है देश की अर्थव्यवस्था को।
इसलिए पिछले सप्ताह का भारत बंद बेमतलब था सिवाय उन राजनीतिक दलों के लिए, जो
दिखाना चाहते थे कि आम आदमी के लिए उन्हें कितनी हमदर्दी है। वही घड़ियाली आंसू
बहाने वाली बात। वास्तव में होगी अगर हमदर्दी या जरा-सी संवेदनशीलता, तो कुछ असली
परिवर्तन लाकर दिखाते हमारे राजनीतिक दल।
असली परिवर्तन के लिए इससे अच्छा समय नहीं हो सकता। मंदी जब
फैल रही है तेजी से अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में, तो क्या हमारे राजनेताओं का
फर्ज नहीं बनता कुछ अपने घरेलू खर्चे कम करने का? और कम हो सकते हैं आसानी से, अगर
एक-दो अहम कदम फौरन उठाए जाएं। पहला कदम तो यह होना चाहिए कि सरकारी आवास सांसदों,
राजनेताओं और अधिकारियों के लिए उपलब्ध करने की प्रथा बंद कर दी जाए। यकीन मानिए कि
कोई भी दूसरा लोकतांत्रिक देश नहीं है दुनिया में, जहां जनता खुद बेघर है,
झुग्गी-बस्तियों में रहने पर मजबूर है, लेकिन इतनी दयालु है कि अपने राजनीतिक
प्रतिनिधियों के लिए उपलब्ध कराती है महलों जैसे घर महानगरों के सबसे महंगे रिहायशी
इलाकों में। दिल्ली में तो तकरीबन पूरी तरह से कब्जा कर लिया है भारत सरकार ने शहर
के लुटियंस हिस्से पर, जहां जमीन के दाम एक सौ पचास करोड़ रुपये प्रति एकड़ है।
इतना महंगा है लुटियंस दिल्ली में रहना कि यहां राजनेताओं और आला अधिकारियों के
अलावा सिर्फ देश के सबसे अमीर उद्योगपति रहते हैं। लेकिन इन उद्योगपतियों के
महलनुमा मकान उतने आलीशान नहीं हैं, जितने मंत्रियों और मंत्रालयों में उच्च स्तर
के सचिवों के हैं। यह कैसी लोकतांत्रिक प्रथा है? कैसा समाजवाद? इन मकानों का अगर
भारत सरकार सही मासिक किराया देने को तैयार होती है, तो एक मकान का किराया 20-30
लाख से कम नहीं पड़ता। समाजवाद का ढिंढोरा पीटने वाले हमारे राजनीतिज्ञों को क्यों
जरूरत है इतने महंगे आवास की? क्यों नहीं आम आदमी का आवास उनके लायक होता है?
महत्वपूर्ण सवाल है यह, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इसे उठाने
को तैयार नहीं, क्योंकि सब जानते हैं अच्छी तरह कि राजनीति में आने का एक बहुत अहम
लाभ होता है आलीशान सरकारी मकान दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में मिलना। इन शहरों में
आवास की समस्या इतनी गंभीर है कि बड़े उद्योगपति भी मुंबई में रहते हैं छोटे
फ्लैटों में, मध्यवर्गीय लोग धारावी जैसी झुग्गी-बस्तियों में और गरीब आदमी के लिए
फुटपाथ पर दो गज जमीन भी मिलना महंगा पड़ता है। फुटपाथ पर रहने वाले पुलिस को हफ्ता
अदा करते हैं। लेकिन उनके सांसद-विधायक आवास की समस्याओं से बिलकुल बेखबर, क्योंकि
उनके बसेरे होते हैं आलीशान सरकारी कोठियों और ऊंची इमारतों में। देश के करदाता
देते हैं उनके आवास के पैसे और ऊपर से उनके लिए उपलब्ध करवाते हैं सस्ती दामों पर
बिजली, पानी और रिहायशी सुविधाएं। मैं जब भी किसी राजनीतिक दोस्त से पूछती हूं कि
उनको क्या बुरा नहीं लगता गरीब जनता के पैसों से इस तरह रहना, तो अकसर जवाब मिलता
है कि ऐसा तो हर देश में होता है। यह झूठ है दोस्तो, सरासर झूठ। पश्चिमी
लोकतांत्रिक देशों में सरकारी आवास का कोई प्रावधान नहीं होता, सिवाय प्रधानमंत्री
या राष्ट्रपति के। जन प्रतिनिधियों के लिए सरकारी आवास उपलब्ध कराने की परंपरा हमने
शुरू की तत्कालीन सोवियत संघ और चीन जैसे कम्युनिस्ट देशों की नकल करके। उन देशों
में इंकलाब आने के बाद राजा-सम्राट खत्म कर दिए गए थे और उनके महलों में बस गए थे
माओ, लेनिन, स्टालिन जैसे इंकलाबी नेता। हमारे यहां तो कोई इंकलाब नहीं आया, लेकिन
स्वतंत्रता मिलने के बाद हमारे समाजवादी राजनेता उन मकानों में बस गए, जो अंगरेज
आला अधिकारी खाली कर गए थे। उस समय के लिए ऐसा करना शायद सही था, लेकिन आज के दौर
में इस परंपरा को जिंदा रखना किसी तरह से सही नहीं हो सकता। सो मंदी के इस मौसम में
मेरी तरफ से विनम्रता से सुझाव है कि घड़ियाली आंसू बहाने के बदले नेताजी कुछ असली
चीज करके दिखाएं, जिसको देखकर जनता खुश हो जाए और सरकारी खर्चे भी कम हो जाएं-खाली
करो अपने मकान और बंद करो यह पुरानी प्रथा।
नजरिया
यकीन मानिए, दूसरा कोई भी लोकतांत्रिक देश नहीं है दुनिया
में, जहां जनता खुद बेघर है, झुग्गी-बस्तियों में रहने के लिए मजबूर है, लेकिन अपने
राजनीतिक प्रतिनिधियों के लिए वह उपलब्ध कराती है महलों जैसे घर।
तवलीन सिंह
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